बाजारवादी समाजवादी आजारवादी




बाजारवादी समाजवादी आजारवादी




रेलमंत्री ने रेल बजट पेश कर दिया। अब आगामी गुरुवार को वित्तमंत्री पी. चिदंबरम नए वित्त वर्ष का बजट पेश करेंगे। बीते वर्ष जब तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी बजट पेश कर रहे थे तभी आर्थिक विशेषज्ञों का ‘फोकस’ बजट घाटे पर था। प्रणव मुखर्जी ने बेहद चतुराई से बजट घाटे का तात्कालिक इलाज किया था। तमाम खर्चवाली योजनाओं को प्रणव दा ने अगले वर्ष के लिए सरका दिया था। पी. चिदंबरम को इस वर्ष चुनावी बजट के ले आना है।

लक्षण बता रहे हैं कि यह घाटा ५.५ फीसदी के आंकड़े को पार करने की स्थिति में है। जब भी आय की तुलना में खर्च बढ़ता है तो वित्तीय घाटा स्वाभाविक तौर पर बढ़ जाता है। कुछ वित्त विशेषज्ञों का मत है कि सकल राष्ट्रीय उत्पादन (जीडीपी) में वृद्धि दर जिस तरह से ५ से ५.५ फीसदी प्रति दबाव के साथ-साथ प्रलंबित योजनाओं के लिए खर्च आबंटन की कसरत भी झेलनी है। चिदंबरम को हर हाल में बजट का वित्तीय घाटा ५.३ फीसदी से नीचे वर्ष की दर तक नीचे आ गिरा है उसमें चिदंबरम के पास ऐसी कोई जादुई वूहृची नहीं बचती जिससे वह बजट को चमत्कारिक बनाकर देश की अर्थव्यवस्था को पलक झपकते ही तार दें।
 
वर्तमान आर्थिक परिस्थिति 
पहले हम वर्तमान आर्थिक परिस्थिति के प्रमुख बिंदुओं को समझ लें। हिन्दुस्तान की जीडीपी इन दिनों लगभग ९४.६२ लाख करोड़ रुपयों की है। चिदंबरम दावा करते हैं कि जीडीपी की वृद्धि दर न्यूनतम ५.५ फीसदी है जबकि वेंहृद्रीय सांख्यिकी विभाग ऐलानिया दावा करता है कि वृद्धि दर ५ फीसदी से अधिक संभव नहीं। लिहाजा, हम चिदंबरम के दावे को ही सटीक मान लें। ५.५ फीसदी की दर से यदि जीडीपी में वृद्धि मानी जाए तो नए वित्त वर्ष का बजट पेश करते समय जीडीपी लगभग ९५.१० लाख करोड़ रुपयों की होगी। यदि सांख्यिकी विभाग के जीडीपी में वृद्धि दर के अनुमान को सटीक माना जाए और उस पर ५.३ फीसदी के वित्तीय घाटे की गणना की जाए तो वित्तीय घाटे की राशि लगभग ५ लाख करोड़ रुपयों की होगी। यदि वित्तीय घाटा ५.५ फीसदी हुआ तो इसमें लगभग २.५ हजार करोड़ की रकम का इजाफा होगा। जीडीपी में वृद्धि दर यदि ५ से ५.५ फीसदी की हो तो आय में लगभग १ लाख करोड़ रुपयों का इजाफा होता है जबकि वित्तीय घाटे में केवल २.५ हजार करोड़ रुपयों का अंतर आएगा।
 
जीडीपी का गणित 
साफ है कि जीडीपी में वृद्धि दर जितना अधिक होगा सरकार के पास योजनाओं पर खर्च के लिए उतनी ज्यादा रकम हाथ में रहेगी। यदि वित्तीय घाटा नियंत्रित करना है तो योजना खर्चों में कटौती अपरिहार्य होगी। चुनाव वर्ष में ऐसा कर पाना चिदंबरम के लिए टेढ़ी खीर है। जो हालात हैं उसमें वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना लगभग असंभव नजर आता है। अर्थव्यवस्था में यूरोप और अमेरिका में मंदी का साया हटने के बाद जिस तरह के वेग की अपेक्षा थी वह साकार नहीं हुई है। विदेशी निवेश के माध्यम से जिस पैमाने पर डॉलर्स हमारी अर्थव्यवस्था में आने चाहिए थे, वह आए नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों की सापेक्षता में घरेलू बाजार में तेल में मूल्य वृद्धि करने में सरकार पूरी तरह कामयाब नहीं हुई है। सरकार तमाम राज्यों में विधानसभा चुनाव देखते ही पेट्रोलियम पदार्थों में मूल्य वृद्धि के पैहृसलों को स्थगित कर दिया करती है। पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं फिर भी वह तेल की मूल्यवृद्धि तो कर रही है। जैसे ही बड़े राज्यों में विधानसभा चुनावों की तिथियां घोषित हो जाएंगी सरकार एक बार फिर तेल की कीमतें बढ़ाने से सकुचाएगी।
 
लुटती जनता
 बीते कुछ महीनों से तेल वंहृपनियां सरकार की सहमति से प्रति माह डीजल की कीमत में ३० से ५० पैसे प्रति लीटर की दर से वृद्धि कर रही हैं। तेल वंहृपनियां इस वृद्धि को नाकाफी करार दे रही हैं जबकि जनता इस वृद्धि पर ही अपने को लुटा हुआ महसूस कर रही है। ऐसे में सरकार की तिजोरी में आय बढ़ाने के लिए प्रणव दा के कार्यकाल से ही सरकार पुराने मामलों में कर वसूली की योजनाएं बना रही है। वोडाफोन, नोकिया, शेल ऑयल आदि को इसी योजना के तहत ‘कर भरो’ की नोटिस जारी हुई। मल्टीनेशनल कंपनियों को नोटिस मार देने भर से कर जमा करा देने की अपेक्षा बेमानी है। वोडाफोन के मामले में सरकार को मुंह की खानी पड़ी। ऊपर से वैश्विक स्तर पर हिंदुस्तान में कारोबारी माहौल न होने का जो दुष्प्रचार हुआ और उससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का माहौल जिस तरह से बिगड़ा वह अलग।
 
चालू खाते का चाबुक 
चिदंबरम के लिए करंट अकाउंट (चालू खाते) में भी घाटे का सिरदर्द है। जब भी निर्यात की तुलना में आयात का खर्च बढ़ता है तो चालू खाते का घाटा बढ़ जाता है। चालू खाते का घाटा जब तक तीन फीसदी से कम रहता है तब तक तो अर्थव्यवस्था को बेहतरीन माना जाता है। जैसे-जैसे यह घाटा बढ़ता है तैसे-तैसे अर्थव्यवस्था की बेहाली बढ़ती जाती है। इस समय चालू खाते में घाटा ५.४ फीसदी है। ५ फीसदी से ज्यादा का चालू खाते का घाटा किसी भी वित्त मंत्री का पसीना निकालने के लिए काफी है। सो, चिदंबरम इस मोर्चे पर भी जूझने को मजबूर हैं। ४ साल पहले जब डॉ. मनमोहन सिंह दावे कर रहे थे कि अमेरिका और यूरोप की मंदी से वह हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं होने देंगे तब चालू खाते में घाटा प्रतिमाह ९५० करोड़ डॉलर्स का था। इन दिनों यह आंकड़ा लगभग १६०० करोड़ डॉलर्स के आस-पास है। ४ वर्षों में मनमोहन सिंह सरकार ने चालू खाते के घाटे में लगभग दुगुनी वृद्धि की इजाजत किन परिस्थितियों में दी? जैसे-जैसे चालू खाते का घाटा बढ़ेगा देनदारियों के लिए कर्ज उठाने की मजबूरी उसी परिमाण में बढ़ती जाएगी। चालू खाते के इस घाटे को चिदंबरम और मनमोहन सिंह क्या खाकर नियंत्रित कर लेंगे? चालू खाते में सबसे बड़ा खर्र्च इंधन तेल के आयात पर होता है। राष्ट्रीय आवश्यकता का ८२ फीसर्दी इंधन तेल हमें आयात करना पड़ता है। यूरोप और अमेरिका में जब तक आर्थिक मंदी थी तब तक स्वाभाविक तौर पर वहां पेट्रोलियम पदार्थ की मांग कम थी, अब वहां अर्थव्यवस्था गतिशील हुई है तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। इस समय पेट्रोलियम पदार्थ का मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग १२० डॉलर्स प्रति बैरल है। यह भाव बढ़ा तो चालू खाते के घाटे को वैहृसे नियंत्रित किया जा सकेगा?
 
गैस-तेल का घालमेल 
कोयला और प्राकृतिक गैस हमारे देश र्की इंधन आपूर्ति के दो अन्य स्रोत हैं। कोयला घोटाले ने कोयला नीति पर ही बट्टा लगा दिया है। प्राकृतिक गैस के मामले में दो साल पहले तक प्रदर्शित किया जा रहा था कि हमारा देश ‘रिलायंस’ की मेहरबानी से आत्मनिर्भर है। अब ‘रिलायंस’ कह रही कि हमारे पास गैस का स्टॉक लगातार घटा है। फिलहाल प्राकृतिक गैस सरकार ४.२ डॉलर्स प्रति मिलियन मैट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट्स (एमएमबीटीयू) की दर से खरीदती है। ‘रिलायंस’ इसमें भारी मूल्य वृद्धि के लिए दबाव बना रही है और उसी खींचतान में कुछ माह पहले एस जयपाल रेड्डी को पेट्रोलियम मंत्री का पद गंवाना पड़ा। रंगराजन की अध्यक्षता वाली समिति वेंहृद्र सरकार को प्राकृतिक गैस का मूल्य ८ डॉलर्स प्रति एमएमबीटीयू करने की सिफारिश कर चुकी है। सो, सरकार को ऊर्जा क्षेत्र के इस मूल्यवृद्धि के संकट से भी चुनाव वर्ष में ही सामना करना है।
 
दुष्परिणाम समझें! 
हम जीडीपी के वृद्धि दर के लगातार नीचे खिसकने के दुष्परिणाम भी समझ लें। जब जीडीपी में वृद्धि दर्ज हो रही थी तब मनमोहन सिंह सरकार ने तर्वहृ दिया था कि वृद्धि दर में एक फीसदी के इजापेहृ से लगभग १५ लाख नए रोजगार सृजित होते हैं। अर्थशास्त्री मानते हैं कि १ रोजगार के प्रत्यक्ष सृजन से ३ रोजगार का अप्रत्यक्ष सृजन और औसतन ५ सदस्यीय कुटुंब का पोषण सुनिश्चित होता है। अब चूंकि जीडीपी की वृद्धि दर ४ फीसदी गिर गई है सो उसी गणित से लगभग १२ करोड़ लोगों को चपत लगी है। विश्व बैंक के लिए एजाज गनी के नेतृत्व में देश में स्वर्ण चतुर्भुज महामार्ग परियोजना का अध्ययन कराया गया। एजाज गनी की रिपोर्ट के अनुसार यह हाईवे जहां से भी गुजरता है वहां १० किलोमीटर के परिक्षेत्र में उत्पादकता और रोजगार सृजन में क्रांतिकारी वृद्धि होती है। बीते ४ वर्षों में यह परियोजना सुस्त पड़ते-पड़ते ठप होने की कगार तक पहुंच चुकी है। स्पष्ट है कि नए इलाकों में आर्थिक गतिविधियों का विस्तार रुक सा गया है। नए भू-अधिग्रहण कानून ने नई सड़क परियोजनाओं के लिए भू-अधिग्रहण को असंभव बना दिया है। सोनिया गांधी के नेतृत्ववाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भू-अधिग्रहण को पूरी तरह से जटिल बनवा दिया। अरुणा रॉय जो इस परिषद की प्रभावशाली सदस्या हैं, ने पूरी ढिठाई से कहा ‘भू-अधिग्रहण विधेयक भले ही विकास विरोधी होने के चलते किसान विरोधी साबित हो रहा हो, पर इतना तय है कि यह ‘प्रो-सिविल सोसायटी है।’
 
अमेरिकी नीतियों का अंधानुकरण 
क्या चिदंबरम अपनी गॉडमदर सोनिया गांधी की सखियों की उन्मादी नीतियों से निपटने की क्षमता रखते हैं? अब तथाकथित समाजवादियों की अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलने के सुझाव की भी पड़ताल कर लें। बजटीय समस्या के निस्तारण के लिए अमेरिका में इनकम टैक्स, कैपिटल गेन टैक्स और डिविडेंड टैक्सेस में भारी बढ़ोत्तरी की गई। अमेरिकी नीतियों का अंधानुकरण करनेवाले इसी नीति का हिंदुस्तान में भी अनुसरण कराना चाहते हैं सो वे अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलने की नीति की पैरवी कर रहे हैं। अमेरिका की आबादी और वहां की अर्थव्यवस्था का अंतर्संबंध हिन्दुस्तानी आबादी और अर्थव्यवस्था के अंतर्संबंध से बिलकुल अलग है। अमेरिका की अधिकांश आबादी जो कल तक श्रमशक्ति थी वह आज । सो जॉर्ज डब्ल्यू बुश और बराक ओबामा को सोशल सिक्योरिटी, मेडिकेयर और  मेडिकेड के लिए भारी बजटीय प्रावधान करना पड़ा। वहां जीडीपी का ८ फीसदी हिस्सा इस मद पर खर्च हो रहा है और २०२५ तक यह खर्च १८ फीसदी अनुमानित है। अमेरिकी आबादी सोशल सिक्योरिटी के चलते टैक्स चोरी से कतराती है। फिर भी जब अति अमीरों पर टैक्स बढ़ाया गया तो ‘फेसबुक’ के सहसंस्थापक एडुआर्डो सैवेरिन जैसे हजारों अमीर सिंगापुर जैसे टैक्स हैवेन्स (कर स्वर्ग) में भाग गए। हिंदुस्तान की टैक्स प्रणाली बुढ़ा रही है तो टैक्स हैवेन्स को बढ़ावा देती है।
 
‘एशियान’ कर प्रणाली 
अति अमीरों को दायरे में लाने की कोशिश हुई तो वे टैक्स बचाने के लिए तमाम कानूनी शॉर्टकट ढूंढ लेंगे। अगले दो दशक में हिन्दुस्तान के १६ से ६० वर्ष के आयु वर्ग में जिसे श्रमशक्ति माना जाता है, ३० करोड़ नए लोग आएंगे। टैक्स चुकाने में सबसे बड़ा प्रतिबद्ध वर्ग ५ से २० लाख रुपए प्रति वर्ष आय वर्गवाले हैं। इस आय वर्ग को यदि ‘एशियान’ देशों जैसी कर प्रणाली दी जाए तो वे अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाएंगे। ‘एशियान’ में उत्तम उदाहरण सिंगापुर का है जहां टॉप इनकम टैक्स रेट २० फीसदी (डिविडेंड समेत) कॉरपोरेट टैक्स १७ फीसदी है। वहां न कोई वेल्थ टैक्स है और न ही वैहृपिटल गेन टैक्स। चिदंबरम और मनमोहन सिंह बाजारवादी हैं और सोनिया की सखियां समाजवादी-साम्यवादी। इस घालमेल ने देश की अर्थव्यवस्था को आजारवादी बना दिया है। जब तक बजट पेश करते समय सरकार का मगज साफ नहीं तब तक अर्थतंत्र को स्वस्थ और सुदृढ़ वैहृसे बनाया जा सकता है? सो चिदंबरम का बजट चूं-चूं का मुरब्बा ही साबित होना है। साभार प्रेम शुक्ल  

HINDUSTAN VICHAR

 

www.hindustanvichar.blogspot.in

 

 

 

 

 

 

Comments

Popular posts from this blog

Tabish Khan (President Bhopal Bodybuilding and Fitness Asssociation)

भोपाल में खुला एक ऐसा जिम जिसके संचालक खुद बॉडी बिल्डिंग की दुनिया में एक मिसाल है