लेखक - नरेन्द्र सिंह तोमर - सुशासन एवं विकास का संकल्प- भाजपा









सुशासन एवं विकास का संकल्प- भाजपा


21 अक्तूबर, 1951 को नई दिल्ली के राघोमल आर्य कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में अ. भा. जनसंघ की स्थापना हुई। प्रथम अधिवेशन 29, 30, 31 दिसम्बर, 1952 को कानपुर में आयोजित किया गया। पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय महामंत्री नियुक्त किये गए, वे 1967 तक इस पद पर बने रहे।

भारत में यह अंग्रेजों से मुक्ति से प्राप्त “स्वतंत्रता” के पश्चात् “सुराज” की व्यवस्था कायम करने के प्रयास की शुरुआत थी। भारत की आज़ादी से दो दशक पहले हमारे देश में इस बात की चिंता होने लगी थी कि स्वतन्त्र भारत, भौगोलिक तथा राजनैतिक दृष्टि से किस प्रकार का होना चाहिए। कांग्रेस की सत्ता केन्द्रित राजनीति में किसी भी चिन्तक को देश का भविष्य दिखाई नहीं दे रहा था। यहाँ तक की कांग्रेस के सत्ता लोलुप नेताओं की मनःस्थिति को देखते हुए ही महात्मा गाँधी ने कहा था की अब इस दल को समाप्त कर देना चाहिए। परन्तु गाँधी की कांग्रेस को जो 1947 से पहले देश का प्रतिनिधित्व करती थी नेहरु ने विभाजन युक्त “स्वतंत्रता” के बाद “नेहरु-कांग्रेस” में बदल दिया था जिसका हेतु केवल अंग्रेजों के बाद भारत पर सत्तासीन होना था।

आज़ादी के तुरंत बाद 1951 में पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में जनसंघ के गठन के साथ ही हमने देश के पहले आम चुनावों में हिस्सा लिया। महात्मा गाँधी की हत्या और विभाजन के विषाक्त माहौल में हमारे देश का पहला आम चुनाव हुआ था। 1952 के इस चुनाव में जनसंघ ने 3.1 प्रतिशत वोट लेकर 3 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। कांग्रेस ने अपने लम्बे चुनावी अनुभव व अंग्रेजों द्वारा सिखाये गए सभी हथकंडों को भी इस चुनाव में अपनाया था। इसके उपरांत जनसंघ ने 1957, 62, 67 के लोकसभा चुनावों में क्रमशः 4, 14, 35 सीटें प्राप्त की। प्राप्त मतों का प्रतिशत सन् 52 के 3.1 प्रतिशत से बढ़कर सन् 67 में 8.94 प्रतिशत हो गया।

उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में 1963 में हमने तीन लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के उपचुनाव में कांग्रेस विरोधी साझा मंच बनाकर भारतीय जनसंघ व  लोहिया की समाजवादी पार्टी ने प्रत्याशी खड़े किए- आचार्य कृपलानी अमरोहा से, पं. दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से, राम मनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से। जौनपुर से जहां पं. दीनदयाल उपाध्याय चुनाव हार गए, वहीं जनसंघ का समर्थन प्राप्त कर  राम मनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए।

1960 से 70 के बीच पूरे दशक में देश में कांग्रेस विरोधी दलों और नेताओं को व्यापक और विशाल राजनैतिक समर्थन मिल रहा था। 1967 आते ही पूरे देश में अधिकांश जगह जनसंघ, कम्युनिस्ट व अन्य गैर कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में कांग्रेस का काफी हद तक प्रदेशो से सफाया हो चुका था। इससे कांग्रेस बौखला गयी थी। 29, 30, 31 दिसम्बर, 1967 को कालीकट में जनसंघ का अभूतपूर्व राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इस अधिवेशन में पं. दीनदयाल उपाध्याय को जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इसी सम्मेलन में राष्ट्रीय भाषा नीति पर विचार विमर्श किया गया और यह निर्णय लिया गया कि सभी भारतीय भाषाओं का समादर करते हुए देश में राजभाषा की गंगा बहाई जाए। मलयायम डेली ने इस सम्मेलन के बारे में कहा कि ‘‘दक्षिण से गंगा बहने का यह पहला अवसर’’ रहा। 

पं. दीनदयाल उपाध्याय की 10-11 फरवरी, 1968 की अर्धरात्रि में मुगलसराय के पास रेल में हत्या कर दी गयी। जनसंघ नेताओं ने जांच का संकल्प लिया। इसके पश्चात् 1968 में अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष नियुक्त हुए। 1973 में लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ के अध्यक्ष बने। राष्ट्रभक्तों की देश में बढ़ती राजनैतिक ताकत से इंदिरा कांग्रेस घबराने लगी और फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंग्रेजों की ही तरह इंदिरा गांधी ने “आपातकाल” लगा कर लोकतंत्र की हत्या करने का असफल प्रयास किया। कांग्रेस विरोधी या कहें कि इंदिरा विरोधी सभी नेताओं एवं पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया गया। 1975 के आपातकाल में जनसंघ ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल विरोधी संघर्ष में प्रमुख भूमिका का निर्वहन किया। प्रमुख विपक्षी दलों ने जनता पार्टी का गठन किया। इंदिरागांधी की सरकार का 1977 में पतन हुआ और जनता पार्टी की सरकार, जिसमें भारतीय जनसंघ, भारतीय लोक दल, कांग्रेस (ओल्ड), समाजवादी तथा सी.एफ.डी. घटक शामिल थे, ने सरकार की कमान संभाली। विदेश मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी तथा सूचना तथा प्रसारण मंत्री के रूप में लालकृष्ण अडवाणी ने कार्यभार संभाला और देश के पुनर्निर्माण की दिशा में अपनी भूमिका का निर्वाह किया। 

जनता पार्टी के घटक दलों का 1980 में विखण्डन हो गया। पार्टी के घटक दलों ने इसे अनुचित करार करते हुए निर्णय लिया कि अब इस दल को भारतीय जनता पार्टी के रूप में स्थापित किया जाये, जिससे भारतीय राजनीति के नए इतिहास का सूत्रपात हुआ। स्वयं जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष ने दोहरी सदस्यता का मामला उठाया। अटलजी और आडवाणी जी सहित सभी ने एक स्वर में कहा कि हम अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को नहीं छोड़ सकते। 6 अप्रैल 1980 को भारत के राजनैतिक पटल पर एक राष्ट्रवादी विचार ने नया रूप लिया जिसे “भारतीय जनता पार्टी” का नाम दिया गया। देश इंदिरा गाँधी के दमनकारी शासन से मुक्त होकर “सुशासन” की तलाश में गैर कांग्रेसी दलों की तरफ देख रहा था। जनता पार्टी पर राष्ट्रनीति की अपेक्षा कूटनीति ज्यादा हावी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत में व्यक्तिनिष्ठ व सत्ता केन्द्रित राजनीति से निराश हुए जनमानस को राष्ट्रनिष्ठ व विचारधारा केन्द्रित राजनैतिक दल का विकल्प देने का निश्चय कर चुका था। भारत की राजनीति में हमारा लम्बा अनुभव हो चुका था। हमने तय किया कि अब हम अपनी विचारधारा पर आधारित राजनीति के मार्ग पर चलकर ही राष्ट्र के पुनर्निर्माण में अपनी आहुति देंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत में एक विशाल और व्यापक राष्ट्रभक्त संगठन के वटवृक्ष के रूप में स्थापित हो चुका था। हमें गर्व है कि हम इसी वैचारिक वटवृक्ष से प्रेरणा लेकर अपने राजनैतिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। भारत को उसकी सभ्यता, स्वभाव और संस्कृति अनुसार विश्व में एक सशक्त व समर्थ देश बनाने का हमारा संकल्प भारतीय जनता पार्टी के रूप में मूर्त रूप ले चूका था। 6 अप्रैल 1980 का दिन अटल जी के जीवन में विशेष महत्व रखता है। दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और अटल जी उसके प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। मुंबई महाधिवेशन में अटल जी का जो भव्य स्वागत किया गया वह ऐतिहासिक था। शोभायात्रा में देश के कोने-कोने से आए पच्चीस हजार से अधिक लोगों ने अपने जननायक को अभूतपूर्व सम्मान प्रदान किया।

1980 से प्रारंभ होकर 1996 तक लोकसभा के चार चुनाव हुए, जिनमें भाजपा को क्रमशः 7.40 प्रतिशत (1984), 11.49 प्रतिशत (1989), और 20.04 प्रतिशत (1991) मत प्राप्त हुए। 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को प्राप्त सीटें और मत प्रतिशत क्रमशः इस प्रकार रहा- 161 सीटें (20.29 प्रतिशत), 182 सीटें (25.59 प्रतिशत), 182 सीटें (23.74 प्रतिशत), 138 सीटें (22.16 प्रतिशत) और 116 सीटें (18.80 प्रतिशत)। 

पिछले 33 वर्षों की यात्रा के दौरान जहाँ दिल्ली में भाजपा के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 3 बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली वहीं मध्यप्रदेश में भाजपा के श्री सुन्दरलाल पटवा, श्री कैलाश जोशी, श्री वीरेंद्र सखलेचा, सुश्री उमा भारती, श्री बाबूलाल गौर और वर्तमान में श्री शिवराज सिंह चैहान ने हमारी सरकारों के मुख्यमंत्री के रूप में नेतृत्व प्रदान किया है। जहाँ केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में राजग ने भारत के खजाने और लोकतंत्र को गांव, गरीब और किसानों की तरफ मोड़ा है वहीं हमने मध्यप्रदेश में भाजपा की पहचान बिजली, सड़क और कृषि केन्द्रित राजनीति को बनाया है। आज भी देश की सरकारें अटल जी के नेतृत्व में हुए नीतिगत फैसलों को मानक मानती हैं वहीं पर मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकारें विकास का पर्याय बनीं हैं। आज मध्यप्रदेश भाजपा सरकार द्वारा शुरू की गयी कई कल्याणकारी योजनायें सभी राज्यों के लिए अनुकरणीय बनी हैं। हमें गर्व है की पिछले 33 वर्षों में हमने देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के खिलाफ किये जा रहे साम्प्रदायिकता के दुष्प्रचार को न केवल परास्त किया है अपितु हमारी पहचान एक राष्ट्रभक्त परन्तु विकास परक विचार समूह जो भारत और भारतीयों को समर्थ और समृद्ध बनाने को संकल्पित है, के रूप में स्थापित किया है। यह भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने हमेशा भाजपा पर अल्पसंख्यक विरोधी होने का जो भ्रम फैलाने का प्रयास किया था उसे हमने विभिन्न राज्यों में अपनी सरकारों द्वारा “सर्वधर्म समभाव” के सिद्धांत पर “सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी” विकास करके ध्वस्त किया है। भारत की राजनीति में कांग्रेस भ्रष्टाचार और कुशासन का प्रतीक बन चुकी है जिससे भारत का नागरिक निराश हो चुका है। वहीं भाजपा “सुशासन व विकास” के प्रकाश के माध्यम से देश में व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त कर युवाओं का विश्वास राजनीति में पुनः स्थापित करने का उपक्रम बनी है। हमारे बढ़ते जनाधार ने हमें एक अभूतपूर्व आत्मविश्वास प्रदान किया है। भाजपा की सरकारों ने देश में एक नयी उम्मीद जगाई है। लगता है कि अब समय आ गया है और अंग्रेजों द्वारा बनाई गयी कांग्रेस अब समापन की ओर है। देष भाजपा की ओर एक सार्थक समाधान के रूप् में देख रहा है। हम विष्वास दिलाते हैं और संकल्प लेते हैं कि हम इस उम्मीद पर खरे उतरेंगे तथा 1980 से जो अलख जगी थी उसके वाहक बन कर हमारे देष और प्रदेष में समृद्धि और खुषहाली का प्रकाश हर घर तक पहुंचाएंगे।












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