परंपरा एक सतत गतिशील प्रवाह है









परंपरा एक सतत गतिशील प्रवाह है

बीसवीं पावस व्याख्यानमाला में परंपरा और आधुनिकता पर विचारोत्तेजक विमर्श


 

भोपाल। म. प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति और हिन्दी भवन न्यास के संयुक्त वैचारिक अनुष्ठान बीसवीं पावस व्याख्यानमाला के दूसरे विमर्श सत्र में शनिवार को ‘परंपरा और आधुनिकता’ विषय पर भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निर्देशक एवं वरिष्ठ आलोचक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय की अध्यक्षता में लगभग तीन घंटे विचारोत्तेजक विमर्श हुआ। जिसमें वरिष्ठ आलोचक अरूणेश नीरन, डॉ. संतोष चैबे, डॉ. विजयबहादुर सिंह, श्रीमती उषा किरण खान, प्रो. गजेन्द्र पाठक तथा डॉ. रमेशचन्द्र खरे ने भागीदारी की। सत्र का संचालन वरिष्ठ कथाकार डॉ. उर्मिला शिरीष ने किया। वक्ताओं ने एक स्वर में कहा कि परंपरा रूढ़ि नहीं, बल्कि परंपरा एक सतत गतिशील प्रवाह है और वह समाज की हर गतिविधि में अपने-अपने तरीके से प्रवाहमान रहता है।
 


इस विमर्श सत्र के प्रारंभ में डॉ. उर्मिला शिरीश ने विषय की प्रस्तावना दी और वे प्रश्न उपस्थित किये , जिनके उत्तर प्रतिभागी विद्वानों के व्याख्यानों में तलाशे जाने थे। विमर्श की शुरूआत वरिष्ठ अतिथि विद्वान अरूणेश नीरन ने करते हुए कहा कि परंपरा से ही आधुनिकता का जन्म होता है। जो कलाबद्ध और प्रक्रियाबद्ध हो, वह इतिहास होता है, परंपरा नहीं। हमने परंपरा को रूढ़ि मान लिया है जो कि गलत है। इतिहास, पंरपरा और आधुनिकता को मिलाकर देखने की आवश्यकता है। आधुनिकता को अस्तित्ववान बनाने का जो काम कारक करता है - वह हमारी परंपरा का प्रवाह ही है। आपने कहा कि परंपरा हमेशा वर्ग और वर्ण के खांचे को तोड़ती है। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को परंपरा को निखरा हुआ शुद्ध रूप हस्तांतरित करती है। जहाँ तक साहित्य का प्रश्न है, वह अखंडन की बात करता है और अतीत के आधार पर वर्तमान का निर्माण करता है। यह चिंता की बात है कि हमारे समाज ने रूढ़ि और परंपरा का अंतर करना छोड़ दिया है। दरअसल परंपरा का नाम ही आधुनिकता और भारतीयता है। इस दृष्टिकोण से देखने पर ही परंपरा और आधुनिकता एवं इन दोनों के बीच के अंतर्संबंधों को ठीक से समझा जा सकता है।
 


हिन्दी और मैथिली भाषा की प्रख्यात कथाकार श्रीमती उषा किरण खान ने कथा परंपरा के विशद विवेचन के माध्यम से परंपरा और आधुनिकता के संबंध में अपने विचार रखे। आपने कहा कि प्राचीन कथाकारों से लेकर आधुनिक कथाकारों तक की रचनाओं में परंपरा और आधुनिकता एक नैसर्गिक क्रिया के रूप में आती रही है। युवा पीढ़ी चाहे पश्चिमी हवा की चपेट में है, लेकिन उसको भी अपनी परंपराओं और आधुनिकता के बीच अपनी मूल आवश्यकता का ज्ञान है। यदि हम अपने सांस्कृतिक स्मृति लोप से मुक्ति पा जाएँ, तो परंपरा और आधुनिकता के बीच अच्छा समन्वय बना सकते हैं। ख्यातिनाम आलोचक डॉ. विजयबहादुर सिंह ने विमर्श में भाग लेते हुए कुछ विचारोत्तेजक प्रश्न प्रस्तुत किये और कहा कि इन प्रश्नों के उत्तरों में ही परंपरा और आधुनिकता का मर्म छिपा हुआ है। आपने कहा यदि कोई समाज अपने समय के साथ सवाल-जवाब नहीं करता है, तो उसके लिये आधुनिकता का कोई मतलब नहीं है। मेरा यह निश्कर्ष है कि हमारे देश ने कभी भी लकीर का फकीर होना स्वीकार नहीं किया है। हर बात को जांचा-परखा और यदि तर्क संगत एवं उचित लगा तब ही उसको माना है, स्वीकार किया है। आपने कहा कि हमारे यहाँ जो नवीकरण की सतत प्रक्रिया चलती रहती है- वही तो  आधुनिकता है। महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह, चरखा  और अहिंसा का नवीकरण किया था। दरअसल परंपरा और आधुनिकता के जो प्रश्न है, उनके उत्तर खोजे जाना चाहिये।
 


कवि-कथाकार डॉ. संतोष चैबे ने साहित्य, इतिहास, विज्ञान, संगीत, चित्रकला आदि विभिन्न विधाओं के परिप्रेक्ष्य में परंपरा और आधुनिकता के संबंध में अपने अध्ययनपरक विचार रखे। आपने कहा-भारतीय परंपरा को समझने के लिये भारतीय इतिहास को ठीक से समझना होगा, क्योंकि परंपराएँ इसी इतिहास से निकलती है। पुरातनपंथी बातो को परंपरा नहीं माना जा सकता। परंपराएँ तो विज्ञान, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, धर्म की भी होती है। आदिवासी परंपराओं की तरफ भी देखना होगा। रामायण और महाभारत के बिना देश की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन्हीं से तो हमारा सारा साहित्य और सारी परंपराएँ निकली हैं। परंपरा विकासमान होती है। इस विकासमान को समझना होगा। परंपरा को शाश्वत रूप में सिर पर रखने और उसकी पूजा करना पर्याप्त नहीं है। उसको विकासमान बनाये रखना चाहिए।
 


डॉ. चैबे ने आगे कहा कि सबको अलग-अलग देखने के बजाय समग्र रूप में देखने की आवश्यकता है। यह देखना होगा कि गतिमान परंपरा को समझना और पहचानना ही आधुनिकता है। परंपराओं को नये समाज में ठीक से समझने के लिये उनको जाँचने-परखने के औजारों पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। युवाओं को उनके हाल पर छोड़कर उनकी तरफ से आँखे बंद कर लेने से काम नहीं चलेगा। उनके साथ विचार-विमर्श का सिलसिला बनाकर जानना होगा कि उनके विचार में भारतीय परंपरा की परिकल्पना क्या है? उनके द्वारा ‘आई लव माय इंडिया!’ कह देने मात्र से संतुष्ट होकर बैठ जाने से काम न होगा। यह जानना होगा कि आखिर वे क्या चाहते हैं? आपने कहा कि साहित्य और समाज में समग्रता की वापसी जरूरी है। भौतिक वस्तु का तो विखंडन किया जा सकता है, किन्तु मनुष्य का विखंडन नहीं कराया जा सकता। जो साहित्य विखंडन की बात करता है, वह सच्चा साहित्य नहीं है।
 


अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने परंपरा और आधुनिकता पर एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। आपने कहा-परंपरा और आधुनिकता को समग्रता के साथ देखने की आवश्यकता है। भारतीय परंपरा को इतिहास शुरू नहीं करता, बल्कि परंपरा तो स्मृति से शुरू होती है। इतिहास तो स्मृति के बाद आया है। दरअसल स्मृति का संसार हमारी परंपरा का संसार है। परंपरा एक निरंतरता है। जो गतिशील नहीं है, वह परंपरा नहीं, बल्कि रूढ़ि है। वास्तव में परंपरा का विकास उसकी गतिशीलता में अंतर्निहित है। इस गतिशीलता में आधुनिकता और वैज्ञानिकता भी शामिल है। सब प्रकार के संक्रमण भी इसमें सम्मिलित हैं।
 


डॉ. श्रोत्रिय ने कहा कि विकासमान परंपराएँ हमेशा विद्रोह से बनती हैं। हम खुद भी जब परंपरा से विद्रोह करते हैं, तब एक समन्वयात्मक चेतना का विकास होता है। सच तो यह है कि चेतना का विकास होता है। सच तो यह है कि परंपराएँ पिछलग्गुओं और अनुगामियों के द्वारा नहीं, बल्कि विद्रोहियों के माध्यम से आगे बढ़ती हैं। हमारे विद्वानों के भाषणों और साहित्य में इसके हजारों प्रमाण देखने को मिल सकते हैं। आपने कहा कि परंपरा को आगे बढ़ाने में जो अवरोध आते है, वे उसकी गति को, उसके प्रवाह को बढ़ाते हैं। परंपरा जब जन्मीं थी-तब भी आधुनिक थीं और अब भी आधुनिक हैं।
 


विमर्श के दौरान श्रोताओं को हस्तक्षेप के लिये भी समय दिया गया। एक श्रोता सुधीर कुमार ने हस्तक्षेप करते हुए सवाल उठाये। अध्यक्ष ने अपने उद्बोधन में इन सवालों का समाधान किया। इस अवसर पर पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह, म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक कैलाशचन्द्र पन्त, वरिष्ठ कथाकार मुकेश वर्मा, कथाकार श्रीमती ज्योत्सना मिलन, प्रो. रमेश दवे, वरिष्ठ कवि डॉ. हुकुमपालसिंह विकल तथा डॉ. देवेन्द्र दीपक, सहित साहित्यकार एवं साहित्य प्रेमी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।






 







 

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