सत्य कथा - "सुख सदन" लेखक - असलम सईद

सत्य कथा 

"सुख सदन"
लेखक - असलम सईद (भोपाल से)



जीवन भर राधेश्याम का एक ही सपना था स्वयं का मकान जिसमें वह सुख से रहे सके पूरा जीवन उन्होंने किराये के मकान में रहकर गुजारा था किरायेदार और मकान मालिक की भिडंत का उन्हें भरपूर ज्ञान था मकान का किराया देकर भी किरायेदार को कभी सुख की नींद नहीं आती है, हर महीने की पहली तारीख को किरोयदार को नसीहतों का लम्बा भाषण सुनना पड़ता है कितनी भी तकलीफ किरायेदार को उस मकान में हो मकान मालिक का उससे कोई सरोकार नहीं होता, मकान के नल में अगर पानी नहीं आ रहा है तो क्या हुआ खरी खोटी सुनकर किरायेदार की ऑखों में पानी जरूर आ जाता है अगर मकान के सामने की गन्दी नाली से भयंकर दुर्गन्ध आती हो तो मकान मालिक को वह सुगन्ध ही लगती है उस सुगंध पर मकान मालिक एक लम्बा भाषण सुनाकर किरायेदार को यह बताने की कोशिश करता है कि ताजमहल के आसपास भी गंदगी रहती है तो क्या ताजमहल भी गंदा हो जाता है, आप मकान साफ रखिये आप को बाहर की दुर्गन्ध से क्या लेना-देना और मन मसोस कर किरायेदार को अपमान का घूट पीना ही पड़ता है वर्ना मकान खाली करने की सिर पर लटकती तलवार कभी भी गिर सकती है। 

इसी तलवार की धार से डर-डर कर राधेश्याम ने अपना जीवन गुजारा था जीवन भर सरकारी नौकरी करते समय हर पल सोचा कि एक स्वयं का मकान बनाए पर सोचने से ही सब कुछ नहीं मिल जाता बाबू गिरी ही तो करते थे अपने कार्यालय में उस पर इकलोते बेटे की पढ़ाई का खर्चा पत्नि बीमार हुई तो स्वस्थ होने का नाम ही नही लिया, बेटे ने एम.ए. पास किया और पत्नि ने संसार से नाता तोड़़ लिया वह तो भला हो पूरन लाल जी का जिन्होंने जीवन के उन कठिन क्षणों में मित्रता का वचन निभाते हुए न सिर्फ बेटे को सरकारी नौकरी लगवाई बल्कि उनके बेटे की शादी भी एक कुलीन घराने में करा दी, फिर समय के साथ ही सरकार ने उनके भविष्य निधि की एक हल्की रकम भी हाथ में थमा दी, रकम आने की देर थी कि पुराना सपना फिर हिलोरे मारने लगा पूरन लाल के सामने मन का भेद खोल दिया, पूरन लाल फिर उनके काम आऐ दो चार मकान दिखलाए पर बात पैसों के अभाव में बात आगे न बन सकी फिर एक तीन कमरे का मकान कुछ समझ में आया कम पड़ते पैसों के लिये बेटे विवेक से बात की, बेटे विवेक से बात की बेटे बहु में चार दिन तक खुसूर-पुसुर होती रही और एक शाम बेटे ने रूपये सामने लाकर रख दिये इस शर्त पर की मकान की कागजी कारवाई में उसका नाम होगा, राधेश्याम का नहीं, राधेश्याम को कोई आपत्ति नही हुई और दूसरे दिन ही उस मकान का सौदा हो गया, पूरन लाल ने एक बार फिर मित्रता निभाते हुए राधेश्याम को उनके नये मकान में शिफ्ट करा दिया, मकान ज्यादा बड़ा नहीं तो छोटा भी नहीं था, तीन कमरे एक किचिन और लेट्रीन बाथरूम थे, ऊपर छत भी कांक्रीट की पक्की थी, कुल मिलाकर मकान ठीकठाक था, गुजारे लायक था, बहु ने अपनी पसंद के दोनों बड़े कमरे चुन लिये थे जिसकी खिड़की दरवाजे बाहर सड़क पर खुलते थे। राधेश्याम को अन्दर वाला छोटा कमरा मिला था पर राधेश्याम उस छोटे से कमरे को पाकर भी प्रसन्नचित थे कि छोटा ही सही पर अपना तो है, बहु बेटा सुख से रहे इससे ज्यादा उनके लिये आत्म संतोष की बात क्या होगी। बाहर की दीवार पर सुख-सदन नाम की पट्टीका लगा दी गई थी जिसे देख कर राधेश्याम गर्व महसूस कर रहे थे। 

सामान उठाने और जमाने की मेहनत से सब थक गए थे, बेटे बहु तो सो भी गए थे, राधेश्याम भी आज स्वयं के मकान में सुख की नींद सोना चाहते थे पर नींद शायद खुशी के कारण नहीं आ रही थी तभी कमरे की एक दीवार पर भूरे रंग की छिपकली देखकर वह डर गए उसकी मोटी लपलपाती जीभ देखकर वह सकपका गए मानो उन्हीं को अपना शिकार बनाना चाहती हो, डर कर करवट बदली पर आँखों से नींद ओझल हो गई, सारी रात आँखें बन्द किये पड़े रहे पर नींद नहीं आना थी सो नहीं आई। 

सुबह होते ही बिना किसी को कुछ बताऐ पूरनलाल के पास पहुंच गए मकान की तारीफ कम और उस मोटी छिपकली की खूब बुराईयां पूरनलाल ने समझाया कि छिपकली कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती है, छिपकली तो भगवान का बनाया जीव है, वह कहां रहेगी और भाग्यवान लोगों के घर ही छिपकली रहती है जहॉ आपस में प्यार होता है छिपकली भी वहीं रहती है, उसे भी प्यार चाहिए होता है, आप किसी वहम में न पड़े, आप डरें नहीं, वह आपका कुछ नहीं बिगाड़ेगी पर पूरनलाल की बातों से उन्हें संतोष नहीं हुआ। 

खैर दो-चार राते फिर ऐसे ही गुजरी, कभी झपकी लग गई तो ठीक वर्ना करवटे बदल-बदल कर सारी रात आँखों में ही गुजार दी, इस एक छिपकली ने उनकी रात की नींद हराम कर दी थी, जाने कहां से आकर इस मकान को अपना ठिकाना बनाया हुआ था, जाने कब से यहां जमी हुई है, कोई दूसरा घर नहीं मिला इसे - एक दो बार उसे डराने के लिये दीवार पर थपथपी भी दी पर वह डरकर भागने के बजाए उसी आवाज पर लपकने को तैयार हो गई थी मानो कह रही हो मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ, आओ मुझ से लडो, छिपकली के यह तेवर देख कर भगाने का ख्याल मन से निकाल दिया। 

फिर सुबह होते ही पूरनलाल के पास जाकर उस छिपकली का राग अलापना शुरू कर दिया, पूरनलाल ने समझाया आप उस छिपकली को इतना महत्व क्यों दे रही हो, आपका सपना साकार हुआ है, सुख से चैन की नींद लीजिए, ध्यान मत दीजिए, उस छिपकली पर पूरनलाल की बात सुनकर उन्हें फिर से संतोष नहीं हुआ। 

घर वापसी पर सदर बाजार की एक दुकान से कीड़े मकोडे मारने की एक तेज जहर की शीशी खरीद लाऐ और आज रात उस छिपकली को जहर देकर उसका काम तमाम करने की सोचने लगे, दिन भर इसी तुकतान में लगे रहे पर जैसे जैसे रात गहराने लगी जीव हत्या पाप है, इन शब्दों की व्याख्यान में उलझ कर रह गए जब सुलझे तब छिपकली हत्या का प्रण मन से निकाल दिया अब कोई दूसरी ही युक्ति अपनाने की सोचने लगे तभी ध्यान आया कि अपने से बलिष्ठ से दुश्मनी नहीं बल्कि मित्रता करनी चाहिये, इस युक्ति ने मन को सहारा दिया, छिपकली को मित्र कैसे बनाए इस विषय पर गहन विचार करने लगे, विचार बदले तो समझा कि छिपकली उन्हें देखकर जीभ लपलपा नहीं रही है बल्कि उनसे बातचीत करना चाहती है, लगा मानो छिपकली स्वयं ही उनसे बातचीत करना चाहती है। 

बस फिर क्या था कल तक की जानी दुश्मन छिपकली अब उन्हें एक नये रूप में नजर आने लगी, पहले आंखों में प्यार उमड़ा फिर जीभ पर शब्दों की वर्णमाला उभरी लगे उससे बतियाने , जाने क्या-क्या बात करने लगे, छिपकली भी स्थिर हो सुनती रही, कीड़े के पीछे लपकना रूक गया, बातचीत करते-करते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला, सुबह देर तक सोते रहे , जब सोकर उठे तब अपनी युक्ति पर गर्व से इठलाकर मुस्करा दिये, एक उलझन से किस प्रकार स्वयं को मुक्त किया था, नए मकान को आज पहली बार उन्होंने घर समझकर निरीक्षण कर स्वयं के मन को प्रसन्नचित रखने सफल प्रयास किया था, अब उस नए मकान में उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था। 

इस प्रकार दिन गुजरते रहे, दिन सप्ताह में और सप्ताह महीने में बदल गया, छिपकली से उनकी मित्रता अटूट हो चुकी थी। अब दिन में भी उनकी ऑखें बेटा बहु से छिपकर उस छिपकली की तलाश करने लग जाती थी जो दिन में जाने कहां जाकर छुप जाती थी, इस बीच पूरनलाल जी से भी दो-चार बार भेंट हो गयी पर उस छिपकली का जिक्र तक अपनी जुबान पर न लाऐ पूरन लाल ने छिपकली का जिक्र भी निकाला तो बात को टाल गए शायद अपनी और छिपकली की मित्रता को सार्वजनिक करना नहीं चाहते थे। पर इश्क और मुश्क की तरह राधेश्याम की यह मित्रता भी एक रात सार्वजनिक हो ही गई, बेटा सरकारी काम से शहर से बाहर गया था, वह समझे बहू सो गई, मन की तीव्रता को शब्दों की वर्णमाला में पिरोकर छिपकली के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे थे, बड़बड़ाने की आवाज सुनकर बहू ने दरवाजे की चौखट पर कान लगा दिये, सारा माजरा समझ गई, ससुर जी पगला गए हैं, साठ की आयु मे अक्सर लोग पगला जाते हैं, घबराकर वहां से भाग गई, पति के सरकारी दौरे से लौटने पर, पहली बात यही बताई, बेटे ने बात को हास्य-परिहास में उड़ा दिया, पर रात को अपने कानों से सुनकर उसे भी विश्वास हो गया कि पिताजी सठिया ही गए हैं।

अगले दिन से ही बहू और बेटा उन्हें अजीब आँखों से निहारने लगे, एक अनजाना खौफ दोनों के मन में समा गया, जब कभी राधेश्याम पोते के साथ कुछ हंसी ठिठौली कर रहे होते, बहू आकर पोते को उठा ले जाती, उसे अपने बच्चे का जीवन खतरे में नजर आने लगा, मन में गुबार भरता रहा और एक दिन वह गुबार गुब्बारा बन कर फूट ही गया, राधेश्याम अपने पोते को उंगली पकड़कर चलना सिखा रहे थे, उंगली छूट गई, बच्चा थोड़ा सा दौड़कर जमीन पर गिर गया, उसका चेहरा छिल गया, बच्चे की रोने की आवाज सुनकर बहू आ गई, बच्चे को जमीन पर गिरा देख ममता जाग उठी, लोक लाज त्याग कर ससुर को खूब खरी खोटी सुनाई, राधेश्याम दंग रह गए, बहू के मन में इतनी घृणा ....... वह भी मेरे प्रति, मैंने कभी उसे बहू नहीं हमेशा बेटी माना, हमेशा बहू-बहू कहा, उसका नाम भी नहीं लिया, यह सोचकर की खाली नाम लेने से कहीं बहू का अपमान न हो जाए, पर नफरत हमेशा प्यार पर जीतती रही है, यह सोचकर वह डबडबाई आंखों में अपने कमरे में चले गए। 

पर थोड़ी ही देर मे विवेक आफिस से लौट आया, सोचा चलो वह मेरी बात समझेंगा, पहुंच गए समझाने, पर उल्टा ही हुआ, पत्नि के हाथों पहले ही समझ चुके बेटे पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ, मन मसोस कर रह गए, उल्टे बेटे ने भी उन्हें क्या-क्या उपाधियां दे डाली। उपाधियों से विभूषित होकर उस रात उन्होने छिपकली के सामने इकलौते बेटे को किस तरह पाला, किस तरह पढ़ाया, किस तरह उसका ब्याह रचाया, सब बातें विस्तार पूर्वक बताकर दुखी मन से सो गए, इस बात से अंजान कि बहु और बेटे ने किस तरह कान लगाकर उनकी सम्पूर्ण बातें सुन ली हैं। 

अगले दिन विवेक आफिस नहीं गया, दिन भर पति-पत्नि जाने क्या-क्या बातें करते रहे, आवाज धीमी थी पर राधेश्याम समझ गए थे, उन दोनों की बातचीत का विषय वहीं हैं, चुपचाप कमरे में बैठे-बैठे दिन गुजार दिया और शाम होते-होते बहू बेटे ने एक निर्णय होकर मन बना लिया और राधेश्याम को मकान खाली करने का आदेश दे दिया। 

पर बेटा मैं कहां जाऊंगा ....... हक्के-बक्के राधेश्याम बोले आप कहीं भी जाकर रहिये, पर प्लीज हमारा और हमारे बच्चे का पीछा छोड़ दीजिए - बहू बोली।

पर बहु क्या मुझसे कोई भूल हो गई, मेरा कुसूर क्या है ? 
अब विवेक बोला - पिताजी आपकी और बहु की नहीं बनती है तो मैं क्या करूं, आपको पेंशन मिलती ही है,, आप आराम से अलग किराये का मकान लेकर रह सकते हैं। 
पर बेटा - दुनियां वाले क्या कहेंगे, सब हसेंगे मेरे ऊपर ........... ।
तो क्या दुनियां वालों के डर से अपने बेटे की बलि चढ़ा दूं, तैश में आकर बहु बीच में ही बोल पड़ी। 
यह क्या कह रही है, बहु - मुन्ना तो मेरी जान हैं ?
पागल दीवानों की कोई जान नही होती है, उनकी तो जात होती है और किसी दिन दिखा दी तो मुन्ना तो गया हाथ से, हमें तो माफ ही करो आप, कोई और ठिकाना ढूंढो आप, कहते-कहते बहु का चेहरा गुस्से से लाल हो गया, बहुत देर तक तमाशा चलता रहा, राधेश्याम की गिडगिडाहट, उनकी दशा स्वयं बता रही थी पर बहु-बेटा टस से मस नही हुए, बहुत समझाया, छोटे बच्चे का वास्ता दिया, बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरे खाने से बचाने के लिये मिन्नते मांगी पर सब बेकार बहु, बेटे का फैसला अडिग था। 
जब बहुत देर तक तमाशा चलता रहा तो बेटे को तैश आ ही गया, अपने ही बाप को घर से निकालने लगा, बूढ़ा बाप घिघियाते हुए सुबह तक की शरण मांगने लगा, पास-पड़ोस का ध्यान कर बहु ने पति को समझाया और राधेश्याम को केवल सबेरा होने तक ही उस मकान में रहने का अंतिम आदेश सुना दिया गया। 
भूखे प्यासे राधेश्याम अपने कमरे में बैठे ऑखों से आंसू बहा रहे थे तभी उनकी दृष्टि दीवार पर बैठी छिपकली पर गई, देखो मजे से अपना शिकार मुंह में दबाए उसे चबाने का प्रयास कर रही है, कुछ ही देर में वह अपना शिकार खत्म कर चुकी थी और निश्चित भाव से राधेश्याम की तरफ दृष्टि गड़ाए देख रही थी, मन मस्तिष्क के साथ आत्मा पर चोट खाए राधेश्याम को छिपकली का इस प्रकार देखना कुछ ज्यादा ही कष्ट दे रहा था। कुछ देर तक सोचते रहे, ऑखों से गिरते आसूओं को हाथों से साफ किया, चेहरा पर आती रूलाई को रोका और फिर एक निर्णय लेकर उठे- वह जहर की शीशी जो छिपकली को मारने के लिये लाये थे, उस शीशी का ढक्कन हटाया, ऑख, नाक बन्द करके गटागट पी गए .... जहर की कड़वाहट से तिलमिला गए फिर पानी का गिलास उठाकर पी गए, जहर शरीर के अंग-अंग में पहुंच गया, फिर निश्चित भाव से छिपकली को देख बोले - सुन, मैंने जहर पी लिया है, अब भगवान से यही प्रार्थना करता हॅू कि मुझे अगले जन्म में तेरे रूप में ही जन्म दे जिस घर से निकाले जाने का डर तो नहीं होगा, कीड़े-मकोड़े खाती है तो क्या हुआ, सुख से एक छत के नीचे तो अपना पूरा जीवन गुजारती है, अपने सगे संबंधियों से प्रताड़ित तो नहीं होती है, कुछ और कहना चाहते थे पर तेज जहर के असर से आवाज गले में रूक गई, आवाज और सांस गले में फंस कर रह गए, फिर धम्म की आवाज से बिस्तर पर ऐसे गिरे कि फिर उठ न सके, सीधे मृत्यु को प्राप्त हुए। 
सुबह होते ही घर में कोहेराम मज गया, पास-पड़ौसी, रिश्तेदार और मित्र तथा पूरनलाल भी घर आ गए थे, बेटे -बहू ने एक बार फिर समझदारी दिखाते हुए पहले ही जहर की वह शीशी उन दवाओं के बीच रख दी जो कुछ दिन पहले सर्दी-खांसी होने पर राधेश्याम लाये थे, पुलिस आई, दवाओं के बीच जहर की शीशी देखकर पुलिस रिर्पोट में लिख दिया कि गलती से जहर की शीशी को खांसी की दवा समझकर पी गए थे, इस कारण मृत्यु हो गई, बेटे बहू के बयान हुए - अपनेपन की सारी सीमाएं तोड़ते हुए दोनों बाबूजी, पिताजी कहते-कहते रोने लगते- पुलिस ने दोनों की हालत देखकर जल्दी से लाश का पंचनामा बनाया और लाश को पोस्टमार्ट्म के लिये भेज दिया, पुलिस चली गई और बहु, बेटे को प्रमाणपत्र मिल गया कि दोनों अपने पिता का जितना आदर, कितना सम्मान करते थे, पिताजी की गलती से ही यह दुर्घटना हो गई थी।
दोपहर में ही लाश घर आ गई थी और अंतिम संस्कार के लिये तैयार शव को श्मशान ले जाने जैसे ही पूरनलाल आगे बढ़े उनकी नजर राधेश्याम    के कमरे से निकली एक छिपकली पर पड़ी, पूरन लाल समझ गए यह       वही  छिपकली है  जिसका  जिक्र  राधेश्याम  किया  करते  थे, छिपकली तेजी से दीवार-दीवार रेंगती बाहर की दीवार तक आई, एक क्षण को रूकी शव को देखा और फिर बाहर सड़क पर उतरी और पूरी रफ्तार के साथ भागती हुई सड़क पर कर नजरों से ओझल हो गई, छिपकली के यूं घर छोड़कर जाने से पूरनलाल अब समझ गए, छिपकली भी जीवित जीव है, उसमें भी सुख-दुख को ग्रहण करने की क्षमता होती है। घर में क्या-क्या होता था, वह सब जानती हैं, तभी तो वह इस घर को छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिये चली गई है, समझा यह सुख-सदन नहीं दुख-सदन है, मेरे मित्र ने जहर भूल से नहीं बल्कि जानबूझकर पिया है, छिपकली ने दोनों का भेद खोल दिया था, बहु बेटे को ध्यान से देखा, दोनों के चेहरों पर हर्ष और संतोष की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही थी। 
चल मेरे मित्र, अब तेरी तरह में भी इस घर में कभी नहीं आऊंगा, यह सुख-सदन हमारे लिये नहीं है, कहते हुए पूरन लाल ने अर्थी को कंधा दिया, बहते आंसूओं और भारी कदमों से धीरे-धीरे चलने लगे। लेखक के संपर्क करने के लिए आप उन्हें फ़ोन नंबर ९८२६८६७७९२ पर संपर्क कर सकते है अथवा हिन्दुस्तान विचार के ईमेल के माध्यम से भी अपना सन्देश "सुख सदन" के लेखक असलम सईद तक पहुंचा सकते है। 

नोट : यह कहानी से हिन्दुस्तान विचार या संपादक का किसी भी प्रकार का कोई लेना देना नहीं है। 








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