लेखक असलम सईद की सत्य कहानिया "सेवक"



सत्य कहानिया

"सेवक"


नोट : सत्य घटना पर आधारित लेखक: असलम सईद की सच्ची कहानी - "सेवक" यह कहानी हमारे को स्वयं लेखक ने दी है और पाठको आपको असलम सईद की यह कहानी पसंद आये तो हमें ईमेल या दूरभाष द्वारा जरूर संपर्क करके बताये ताकि भविष्य भी आपको "सेवक" कहानी के लेखक असलम सईद के सत्य कहानिया और पढ़ने को मिले और लेखक का उत्साह वर्धन भी हो सके, धन्यवाद। 

बाल अवस्था में किशोर अवस्था तक कुछ कहानियां, कुछ लेख समाचारपत्रों में पढ़ता रहा, यह क्रम यू ही कुछ रूक-रूक कर चलता रहा. एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ा, पिताजी स्वर्ग सिधार गए, युवावस्था में पहुंचने से पहले ही स्कूल का साथ छूट गया, घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि स्कूल जाता तो घर में भूखा सोना पड़ता. विचार करना ही था कि स्कूल जाता और किताबी शब्दों से अपने पेट की भूख शांत करता. अंततः भूख जीत गई, शब्द हार गए.

मैंने स्कूल छोड़ एक कपड़े की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया. हर महीने पैसे मिल जाते और घर का राशन इतना तो आ ही जाता जितना जीवित रहने के लिए आवश्यक होता है. माँ उस छोटे से वेतन से भी घर को किसी तरह से चला रही थी. यहांे माँ की सजगता ही थी कि हम दोनों को सुबह शाम भोजन मिल रहा था. जब भोजन कम होता है तो स्वाद की भी चिन्ता नहीं रहती है. यह बात हम दोनों भोजन कर समझ जाते थे, माँ हमेशा मुझे प्रोत्साहित करती रहती थी कि राजेश बेटा मेहनत करो, ईमानदारी से अपना कार्य करो, जीवन का कठिन समय व्यतीत हो जायेगा, एक अच्छे भविष्य की कामना लिये हम दोनों अपना समय व्यतीत कर रहे थे।. 

समय का रथ रूकता नहीं, वह चलता ही जाता है और अपने पीछे यादों का मेला छोड़ता जाता है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. एक दिन माँ भी मुझे छोड़कर संसार से चली गई. सदा के लिये, मेरी यादों में समा गई पर माँ जाने से पहले अपनी बहू से अपने घर को प्रज्जवलित कर गई .... सुधा नाम था उसका, सुधा मन और रूप की देवी थी, जितना सुन्दर बाहर से थी उतनी ही सुन्दर मन से भी थी. हमेशा मुस्कुराती रहती थी, मेरा छोटा-छोटा सा भी ध्यान रखती थी. घर में खटपट न हो तो व्यक्ति का मन काम में लगता ही है. पत्नि के प्रोत्साहन और स्वगीय माँ के आर्शीवाद से ही मैं आज एक अच्छा सेल्समेन बन गया था. बाजार का हर दुकानदार मुझे अपनी दुकान पर रखना चाहता था और उनके बीच छिड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण जहां मैं कार्य कर रहा था वहां स्वयं ही मेरा वेतनमान बड़ा दिया गया था। मेरे दुख भरे दिन मानो माँ अपने साथ ही ले गई थी. अच्छा वेतनमान, पढ़ी लिखी सर्वगुण सम्पन्न पत्नि और एक अच्छा मकान, किराये का ही सही पर सब कुछ मानो अब व्यवस्थित होने लगा था. 

जब जेब के कुछ पैसे होते है तो व्यक्ति अपने ऊपर भी कुछ खर्च कर ही लेता है. ऐसा ही मेरे साथ हुआ, बाल अवस्था से युवा अवस्था तक की कुछ कहानियां मेरे मन मस्तिष्क में अब भी जीवित थी. मन मचल उठा और एक पुस्तक घर से एक प्रसिद्ध लेखक का कहानी संग्रह खरीद कर घर ले आया, पढ़ना शुरू किया तो उसमें रमता गया, रमता ही गया, समय का भी ध्यान नहीं रहता, एक-एक कहानी को दो-दो, चार-चार बार पढ़ता और हर शब्द को मानो कंठस्थ करने का प्रयत्न करता, उस कहानी संग्रह ने मानो मेरे सोये अतीत को जगा दिया, स्कूल छूटने की पीड़ा को तेज कर दिया, हृदय में पीड़ा उठी पर अब क्या हो सकता था, समय पीछे छूट चुका था।

अब वर्तमान में वह पुस्तक ही मेरा सबसे अच्छी मित्र बन चुकी थी और उसमें लिखें शब्द मेरे मन-मस्तिष्क में हिलोरे मारते रहते, कब नींद का पावन झोंका मुझे अपने साथ ले उड़ता मुझे पता ही नहीं चलता, सुबह जब वापस आता, तब पता चलता पुस्तक हाथ में लिये ही सो गया था. सुधा ने मुझे इस रूप मे देखा तो पाया कि पतिदेव पुस्तक प्रेमी हो गए हैं. अच्छा ही है कहीं ओर मन लगाने से अच्छा है शब्दों से ही मन बहलाया जाये और एक शाम सुधा ने मुझे कोरे कागज और पेन्सिल बाॅक्स देते हुए कहा - ”लीजिए, आज से आप नए रूप का आनन्द लीजिए, आप में शब्दों को ग्रहण करने की अदभुत क्षमता है, आप शब्दों से प्रेम करते हैं ....................... आप शब्दों का स्मरण कीजिए .................... शब्द आपको निराश नहीं करेंगे, आप दोनों एक दूसरे के पूरक बन जाइये ...... आप साथ चलिये ......आप को कोई रोक नहीं सकेगा.“

मैं और लेखक, मैंने विस्मित होकर पूछा - 
हाॅ, राजेश आप - समाज में देश में कितने लोग हैं जो पुस्तकों से प्रेम करते हैं, शब्दों में प्रेम करते हैं, आपकी आत्मा के कण-कण में शब्द भरे पड़े हैं, उन्हें बाहर आने का रास्ता दीजिए, संसार का हर लेखक अपनी पहली कृति लिखते समय अत्यन्त ही असमंजस  की स्थिति में स्वयं को पता है, वह डरता है कि उसकी लिखी पुस्तक प्रकाशित भी होगी अथवा नहीं और पुस्तक प्रकाशित भी हो गई तो लोगों को पसन्द आयेगी या नहीं पर जो अपने डर पर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने संकोच पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह एक दिन प्रसिद्ध लेखक बन ही जाता है और फिर प्रयत्न करने से पहले ही हार मान कर चुपचाप बैठ जाना अपने भीतर के लेखक को खत्म कर देना है, उसे बाहर आने का अवसर प्रदान कीजिये, कहते-कहते सुधा चुप हो गई, मैंने देखा वह दृढ़ता और विश्वास से भरी थी और आशा भरी नजरों से मुझे देख रही थी, अपने प्रति उसके मन में उठती असीम संभावनाओं को मैं महसूस कर रहा था, मैंने उसके हाथों से कागज और पेन्सिल ली और चुपचाप दूसरे कमरे में चला गया।

सुबह नाश्ता करते समय सुधा ने मुझे कुछ नहीं पूछा और मैंने उसे भी नहीं बताया कि लेखक बनना इतना आसान थोड़े ही है - लेखक बनने के लिये कल्पना के सागर में डुबकी लगानी पड़ती है - सागर से निकल कर क्षितिज पर चढ़ाई करना पड़ती है. क्षितिज और सागर के बीच की दूरी को नापते हुए शब्दों में वर्णमाला को चतुराई के साथ पिरोना पड़ता है. उन्हें गढ़ना पड़ता है. तब कहीं जाकर एक माला बनती है. जिसे विचार कहते हैं जब विचार बन जाता है तब उसे सुविचार बनाने की दिशा में अत्यन्त गतिशीलता के साथ शब्दों की माला को रोचक और गंभीर बनाना पड़ता है.  जिसके लिये यथेष्ट अनुभव की आवश्यकता पड़ती है और वह अनुभव लेखन की निरन्तरता के साथ स्वयं ही प्रकट होता है, तभी सुधा ने मुझे नाश्ता ठण्डा होने का एहसास दिलाया और मैं वर्तमान में वापस आ गया.
उस रात फिर अपने मन-मस्तिष्क पर जोर दे रहा था कितना समय बीत चुका था. पता ही नहीं चला था, सुधा सो चुकी थी. ऐसा मैं अनुभव कर रहा था, अनुभव तो यह भी कर रहा था कि लेखक बनना इतना आसान नहीं था. शब्दों को गढ़ना और उन्हें विस्तार पूर्वक परिभाषित करना आसान नहीं था पर निरन्तर प्रयास से ही यह संभव हो सकता था, कोई दूसरा विकल्प न होने के कारण मैं केवल निरन्तर प्रयासरत था. मस्तिष्क में विचार आता, मन से उसका मिलान करता, फिर विचार करता, एक संक्षिप्त रूप रेखा तैयार करता- पर बात कुछ बन नहीं पा रही थी- कभी शब्दों में उलझ कर रह जाता, शब्द मिलते तो पता चलता यह तो दूसरी भाषा के हैं, मैं तो हिन्दी में लिख रहा हूँ, यह यहां नहीं आ सकते, अजब संशय की स्थिति थी, लेकिन इतना सब होने पर भी मैं प्रयासरत था. सुधा से यह थोड़े ही कह सकता था, उसने मुझमें जो संभावनाऐं देखी हैं, वह विलुप्त हो गई हैं, समाप्त हो गई हैं। 

दिन गुजरते गए, रात होते ही एकांत दूसरे कमरे में जाकर एक लेखक बनने की कोशिश करता रहा, सुधा ने मुझसे कभी कोई प्रश्न नहीं पूछा, न मेरे लेखन के बारे में, न मेरे पात्रों के बारे में, वह समझती थी कि पतिदेव कोशिश तो कर ही रहे हैं, एक दिन सफल अवश्य होंगे यह उसका विश्वास ही था तो मुझे निरन्तर लेखन की ओर अग्रसर कर रहा था.

महीना गुजर गया मैं जहा था, वहीं खड़ा रह गया था, कागज कोरा था, ना कोई विचार न कोई पात्र, बस साथ कल्पना के वह घोड़े थे, जो क्षितिज पर नहीं बल्कि सूखे रेगिस्तान की गर्म हवा में, दौड़ रहे थे, जहां जीवित पात्रों का नामो निशान ही नहीं था. 

अगले दिन सबेरे नगर के प्रमुख समाचार पत्रोें में बड़े-बड़े सरकारी विज्ञापन प्रथम पेज पर दिये गए थे, प्रदेश के मुख्यमंत्री ने हर्ष पूर्वक घोषणा की थी कि इस सप्ताह विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन हमारे नगर में किया जायेगा, देश-विदेश से बड़ी-बड़ी हस्तियां, विभूतियां, लेखक, विद्वान, बुद्धिजीवी - विचारक सब एक मंच पर इकट्ठे होंगे और हिन्दी के विकास उत्थान और प्रगति के लिये अपने विचार रखकर एक ऐसा निष्कर्ष निकालेंगे कि हिन्दी भाषा की गरिमा को ओर उज्जवल बनाया जाए. इस समारोह के सफल उद्घाटन के लिये हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री ने भी अपनी सहमति प्रदान कर दी थी.

दूसरे दिन से ही पूरे नगर में इस समारोह को सफल बनाने के लिये विभागों का बंटवारा कर दिया गया, मुख्यमंत्री स्वयं रूचि लेकर एक-एक कार्य की समीक्षा कर रहे थे जब मुख्यमंत्री समीक्षा कर रहे हो तो फिर उस कार्य को अच्छा होने से भला कौन रोक सकता है. सारे विभाग एक सुर और एक ताल के साथ मिलकर पूरी शक्ति के साथ इस समारोह को सफल बनाने के लिये जुट गए. 

चैक-चैराहों को सजाने, सवारने का कार्य शुरू कर दिया था. बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगा दिए गए थे, पेंटिंग से दीवारों को सजा दिया गया, सड़कों की मरम्मत के साथ ही उन पर जैब्रा क्रासिंग की सफेद पट्टीकाऐं पेंट कर दी गई, हर चैक चैराहे पर पुलिस की स्टाप लिखी अवरोधक नजर आने लगी।

एक बड़े मैदान पर कार्यक्रम स्थल बना दिया गया था, बड़े आलीशान तरीके से ग्राउण्ड को कवर किया गया था, छत और ज़मीन सजाने में कुशल कारीगर लग गए थे, प्रवेश द्वार पर हिन्दी भाषा के नाम की बहुत खूबसूरत पट्टिका लगा दी गई थी, हर सरकारी विभाग का बड़े से बड़ा अफसर वहां खड़े रहकर इस सम्मेलन को सफल बनाने में पूरी मेहनत के साथ अपना योगदान दे रहा था. जिला प्रशासन और पुलिस बल चप्पे-चप्पे पर नजर रखे हुए था, हर संदिग्ध पर गहरी नजर रखी जा रही थी.

जब नगर में सप्ताह भर से इतनी व्यापक तैयारियां की जा रही हों तो हर सामान्य व्यक्ति के मन में यह जिझासा अवश्य आ जाती है कि जरूर कोई बड़ा सम्मेलन होने वाला है। ऐसी ही जिज्ञासा मेरे मन में भी स्वयं आ गई और मन में विचार आया कि मैं भी सम्मेलन में जाऊंगा और हिन्दी भाषा पर होने वाले कार्यक्रम को समझने को प्रयत्न करूंगा, मन में प्रण कर लिया. 

दूसरे दिन घर से साफ सुथरे कपड़े पहनकर, पैरों में पालिश किये जूते डाल कर समारोह स्थल की ओर बढ़ना शुरू किया तो जगह-जगह पुलिस के जवान और पुलिस की गाड़ियां ही नजर आ रही थी. सड़क पर वाहन कम ही दिखाई दे रहे थे. पुलिस ने पहले ही चैराहे पर मुझे रोक दिया और वापस जाने का कठोरता से आदेश मिला. मैं समझ गया, सामान्य व्यक्तियों का आयोजन नहीं है, इस समारोह में जाने के लिये हिन्दी भाषा की गरिमा से सेवा करने वाला गणमान्य व्यक्तित्व वाला विद्वान होना आवश्यक है। 

मैं तुरन्त लौट आया, सुधा से क्या कहता, चुप रहा और टेलीविजन चालू कर समारोह स्थल का सीधा प्रसारण देखने लगा. प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कार्यक्रम स्थल पर पहुंच चुके थे और कार्यक्रम का उद्घाटन शुरू हो गया. माननीय प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री जी और केन्द्रीय मंत्री आपने भाषण से हिन्दी भाषा की गरिमा का उच्च स्तरीय सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे. शब्द हिन्दी में थे और बहुत कुछ मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति को ध्यान मे ंरखकर बोले जा रहे थे- मैं तन्मयता से शब्दों को सुनकर अपने मस्तिष्क में स्थान देता जा रहा था।

उद्घाटन समारोह समाप्त होेते-होते ऐसा लग रहा था जैसे शरीर पर रखा कोई बड़ा बोझ हट गया हो, मन में विचारों का समागम शुरू हो गया था, मुझे मेरी कहानी शीर्षक मिल चुका था मैं तुरन्त दूसरे कमरे में गया और कागज पैन्सिल उठाकर अपने विचार व्यक्त करने लगा, आश्चर्यजनक रूप से आज मेरे विचार मेरे पात्रों से मेल खा रहे थे, पात्र मेरे शब्दों का अनुसरण कर रहे थे, आज शब्द बस कागज पर दौड़े जा रहे थे, वह हर भाषा से आ रहे थे, चाहे वह उर्दू के शब्द हो, फारसी के हों या फिर संस्कृत के सब शब्द हिन्दी भाषा की विशालता में समातें जा रहे थे। शब्द बनते जा रहे थे, बढ़ते जा रहे थे, हिन्दी भाषा की विपुलता में इजाफा होता जा रहा था, हर दूसरी भाषा के शब्दों को हिन्दी भाषा अपने आँचल में समेटते जा रही थी किसी शब्द को कोई मनाही नहीं थी। 

कुछ ही घण्टों में मेरे जीवन की पहली रचना मेरे हाथों में थी, मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था पर यह सच था क्या मैं हिन्दी भाषा को सेवक बन चुका था, क्या मैंने हिन्दी भाषा की सेवा करने का जो संकल्प लिया था, क्या उस संकल्प का इस सम्मेलन से कुछ वास्ता था हाँ बिल्कुल था, हमारे माननीयों ने उद्घाटन भाषण में कहा था हिन्दी भाषा को रूकने मत दो हम किसी दूसरी भाषा के विरोधी नहीं हैं। हम शब्द प्रेमी है, हिन्दी भाषा के प्रेमी है, हर भाषा के किसी भी शब्द को हिन्दी भाषा में आने के लिये किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है. इसीलिये मैं शब्दों के मायाजाल से निकल कर हर भाषा के शब्दों का प्रयोग कर अपनी पहली रचना की संरचना कर पाया था। दौड़कर सुधा के पास पहुंचा और अपनी रचना उसे भेंट की सुधा ने शीर्षक पढ़ा सेवक फिर मुस्कुराई और टेलीविजन की ओर देखा जहाॅ विश्व हिन्दी सम्मेलन के समाचार पढ़े जा रहे थे। फिर बोली आपकी हमारी हम सबकी हिन्दी भाषा के एक नए सेवक पधार चुके हैं। पत्नि की खुशी देखकर में खुश हो रहा था, सच आज उसका सपना सच हो गया था, घर में एक हिन्दी भाषा के सेवक का जन्म हो चुका था।लेखक असलम सईद को आप मोबाइल नो. ९८२६८६७७९२ पर भी संपर्क कर सकते अथवा हिन्दुस्तान विचार के ईमेल: hindustanvichar@yahoo.in पर संपर्क करके लेखक तक अपना सन्देश अथवा बधाई पाऊचा सकते है। 













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