फोर्ब्स पत्रिका में दर्ज भारतीय ग्रामीण वैज्ञानिक


फोर्ब्स पत्रिका में दर्ज भारतीय ग्रामीण वैज्ञानिक




भारत में सबसे ज्यादा बसने वाले ग्रामीण और अर्थ व्यवस्था के रीढ़ बने किसान वर्तमान हालातों में मीडिया से भी कमोबेश बाहर हैं और संसद से भी ? अब गांव, कृषि और किसान से जुड़ी समस्याएं इन संस्थानों में बहस-मुबाहिसा का हिस्सा कम ही बनती है। ऐसे हालात में देश दुनिया के पूंजीपतियों की आर्थिक हैसियत का आकलन करने के लिए मशहूर अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ऐसे सबसे शक्तिशाली भारतीय आविष्कारकों की सूची जारी की है जिन्होंने ग्रामीण पृष्ठभूमि से होने के बावजूद ऐसी तकनीकें इजात की जिससे देश भर में लोगों को जीवन में बदलाव के अवसर मिले। यहां हैरानी में डालने वाली बात यह भी है कि इनमें से ज्यादातर लोगों ने प्राथमिक स्तर की शालय शिक्षा भी ग्रहण नहीं की है। इनके नाम चयन आईआईएम अहमदाबाद के प्राध्यापक और भारत में हनीबी नेटवर्क के संचालक अनिल गुप्ता ने फोर्ब्स पत्रिका के लिए किया है।
        भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की विवशता के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ज्ञानी और परंपरागत ज्ञान आधारित कार्य प्रणाली में कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल ही माना जाता है। यही कारण है कि हम देशज तकनीक व स्थानीय संसाधनों से तैयार उन आविष्कारों और आविष्कारकों को सर्वथा नकार देते हैं जो ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणालियों से जुड़े होते हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय इन्हीं देशज तकनीकों में अंतर्निहित हैं। औद्योगिक क्रांति ने प्राकृतिक संपदा का अटाटूट दोहन कर वायुमण्डल में कॉर्बन उत्सर्जन की मात्रा बढ़ाकर दुनिया के पर्यावरण को जिस भयावह संकट में डाला है उससे मुक्ति के स्थायी समाधान अंततरू देशज तकनीकों से वजूद में आ रहे उपकरणों व प्रणालियों में ही तलाशने होंगे। भारतीय वैज्ञानिक संस्थाएं और उत्साही वैज्ञानिकों को नौकरशाही के चंगुल से मुक्ति भी इन्हीं देशज मान्यताओं को प्रचलन में लाने से मिलेगी। इस दृष्टि से फोर्ब्स पत्रिका का यह मूल्यांकन बेहद महत्वपूर्ण है।
        हमारे समाज में श्घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिध्दश् कहावत बेहद प्रचलित है। यह कहावत कही तो गुणी-ज्ञानी महात्माओं के संदर्भ में है किंतु विज्ञान संबंधी नवाचार प्रयासों के प्रसंग में भी खरी उतरती है। उपेक्षा की ऐसी ही हठवादिताओं के चलते हम उन वैज्ञानिक उपायों को स्वतंत्रता के बाद से लगातार नकराते चले आ रहे हैं जो समाज को सक्षम और समृध्द करने वाले हैं। नकार की इसी परंपरा के चलते हमने आजादी के पहले तो गुलामी जैसी प्रतिकूल परिस्थितियां होने के बावजूद रामानुजम, जगदीशचंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस जैसे वैज्ञानिक दिए लेकिन आजादी के बाद मौलिक आविष्कार करने वाला अंतरराष्ट्रीय ख्याति का एक भी वैज्ञानिक नहीं दे पाए। जबकि इस बीच हमारे संस्थान नई खोजों के लिए संसाधन व तकनीक के स्तर पर समृध्दशाली हुए हैं। इससे जाहिर होता है कि हमारी ज्ञान-पध्दति में कहीं खोट है।
        दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने की दृष्टि से भारत का तीसरा स्थान है। लेकिन विज्ञान संबंधी साहित्य सृजन में केवल पाश्चात्य लेखकों को जाना जाता है। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आविष्कारों से ही यह साहित्य भरा पड़ा है। इस साहित्य में न तो हमारे वैज्ञानिकों की चर्चा है और न ही आविष्कारों की। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हम खुद न अपने आविष्कारकों को प्रोत्साहित करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। इन प्रतिभाओं के साथ हमारा व्यवहार भी कमोबेश अभद्र ही होता है। समाचार-पत्रों के पिछले पन्नों पर यदा-कदा ऐसे आविष्कारकों के समाचार आते हैं जिनके प्रयासों को यादि प्रोत्साहित किया जाए तो हमें राष्ट्र-निर्माण में बड़ा सहयोग मिल सकता है।
        ऐसे में फार्ब्स में दर्ज ग्रामीण आविष्कारक नवप्रवर्तन के जिए जबरदस्त अभी प्रेरणा का मंत्र बनकर उभरे हैं। क्योंकि आम लोगों की जरूरतों के मुताबिक स्थानीय संसाधनों से सस्ते उपकरणों का अविष्कार कर इन नवाचारियों ने समाज व विज्ञान के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम किया है। फोर्ब्स सूची में सामिल मनसुखभाई जगनी ने मोटर साइकिल आधारित ट्रेक्टर विकसित किया है जिसकी कीमत महज 20 हजार रूपये है। केवल दो लीटर ईधान में यह ट्रेक्टर आधे घंटे के भीतर एक एकड़ भूमि जोतने की क्षमता रखता है। मनसुखभाई पटेल ने कपास छटाई की मशीन इजाद की है। इसके उपयोग से कपास की खेती की लागत में उल्लेखनीय कमी आई है। इस मशीन ने भारत के कपास उद्योग में क्रांति ला दी है। इसी नाम के तीसरे व्यक्ति मनसुखभाई प्रजापति ने मिट्टी से बना रेफ्रिजरेटर तैयार किया है यह फ्रिज उन लोगों के लिए वरदान है जो फ्रिज नहीं खरीद नहीं सकते अथवा बिजली की सुविधा से बंचित हैं। ट्राईका फार्मा के एमडी केतन पटेल ने दर्द निवारक आइक्लोफेनैक इंजेक्शन विकसित किया है। ठेठ ग्रामीण दादाजी रामाजी खेबरागढ़े भी एक ऐसे आविष्कारक के रूप में सामने आऐ हैं, जिन्होंने चावल की नई किस्म एचएमटी विकसित की है। यह पारंपरिक किस्मों के मुकाबले 80 फीसदी ज्यादी पैदावार देती है। मदनलाल कुमावत ईधन की कम खपत वाला थ्रेसर विकसित किया है, जो कई फसलों की थ्रेसिंग करने में सक्षम है। लक्ष्मी आसू मशीन के जनक चिंताकिंडी मल्लेश्याम की मशीन बुनकरों के लिए वरदान साबित हो रही है। यह मशीन एक दिन में छह साडि़यों की डिजाइनिंग कर सकती है।
        फोर्ब्स सूची में एक ऐसी महिला उद्यमी का नाम भी दर्ज है, जिनके द्वारा स्थापित श्गूंजश् संस्था अमीर लोगों के प्रयोग में लाए गए कपड़े और घरेलू सामान को लेकर सबसे गरीब समुदायों तक पहुंचती है। संस्था की संस्थापक अंशु गुप्ता हर महीने 30 टन कपड़े एकत्रित करते हैं और इसे बीस राज्यों में सबसे गरीब लोगों के बीच बांटते है।
        ऐसे में जरूरत है नवाचार के जो भी प्रयोग देश के विभिन्न राज्यों में हो रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करने की ? इन्हीं देशज विज्ञानसम्मत टेक्नोलॉजी की मद्द से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैं। लेकिन देश के होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता मिलने की राह में प्रमुख रोड़ा है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। क्योंकि हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग व विश्लेषण की छूट की बजाय तथ्यों आंकड़ों और सूचनाओं की घुट्टी पिलाई जा रही, है जो वैज्ञानिक चेतना व दृष्टि विकसित करने में सबसे बड़ा रोड़ा है। इन वजहों से व्यक्ति की मौलिकता और रचनात्मकता को बढ़ावा नहीं मिलता। कल्पनाशील छात्रों को कक्षा में आवाज उठाने की स्वीकृति नहीं मिलती। कल्पनाशीलता और रचनात्मकता से जुड़े पाठयक्रम भी पाठय-पुस्तकों का हिस्सा भी नहीं है। जैसे, हमारे शिक्षक विद्यार्थी से सवाल करते हैं कि देश में कितनी भाषाओं को राज्य भाषा का दर्जा प्राप्त है ? छात्र का जवाब होता है, बाईस। इतने पर ही शिक्षक छात्र को शाबासी देकर सवाल की इतिश्री कर लेता है। जबकि इसके आगे का सवाल होना चाहिए कि ये भाषाएं, राज्य भाषाएं किस आधार पर बनाई गईं हैं और हिन्दी किस तरह से एक वैज्ञानिक भाषा है ? यदि शिक्षक ये सवाल करें तो जिज्ञासु विद्यार्थी में रचनात्मक कल्पनाशीलता जन्म ले ?
        ऐसे में जब विद्यार्थी विज्ञान की उच्च शिक्षा हासिल करने लायक होता है तब तक रटने-रटाने का सिलसिला और अंग्रेजी में दक्षता ग्रहण कर लेने का दबाव, उसकी मौलिक कल्पनाशक्ति का हरण कर लेते हैं। ऐसे में सवाल उठता है विज्ञान शिक्षण में ऐस कौन से परिवर्तन लाए जाएं जिससे विद्यार्थी की सोचने-विचारने की मेधा तो प्रबल हो ही, वह रटने के कुचक्र से भी मुक्त हो ? साथ ही विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद उपाधि से नवाजने व सीधो वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान हों।
        हालांकि हम भारत की आधुनिक शिक्षा पध्दति की जडें लार्ड मैकाले द्वारा प्रचलन में लाई गई अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में देखते हैं। जबकि मैकाले ने कुटिल चतुराई बरतते हुए 1835 में ही तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक को अंग्रेजी व विज्ञान की पढ़ाई को बढ़ावा देने के निर्देश के साथ यह भी सख्त हिदायत दी थी कि वे भारत की संस्कृत समेत अन्य स्थानीय भाषाओं तथा अरबी भाषा से अध्ययन-अध्यापन पर अंकुश भी लगाएं। इसकी पृष्ठभूमि में मैकाले का उद्देश्य था कि वह भारत की भावी पीढि़यों में यह भाव जगा दें कि ज्ञानार्जन की पश्चिमी शैली उनकी प्राचीन शिक्षा पध्दतियों से उत्तम है। यहीं अंग्रेजी हुक्मरानों ने बड़ी चतुराई से सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य को धर्म और अध्यात्म का दर्जा देकर उसे ज्ञानार्जन के मार्ग से ही अलग कर दिया। जबकि हमारे उपनिषद प्रकृति और ब्रह्माण्ड के रहस्य, वेद विश्व ज्ञान के कोष, रामायण और महाभारत विशेष कालखण्ड़ों के आख्यान और पुराण राजाओं के इतिहास हैं। अब बाबा रामदेव ने आयुर्वेद और पातंजलि योग शास्त्र को आधुनिक एलोपैथी चिकित्सा पद्यति से जोड़कर यह साबित कर दिया है कि इन ग्रंथों में दर्ज मंत्र केवल आध्यात्मिक साधना के मंत्र नहीं हैं। कम पढ़े लिखे एवं अंग्रेजी नहीं जानने वाले बाबा रामदेव आज दुनिया के चिकित्साविज्ञानियों के लिए चुनौती बने हुए हैं ? बाबा राम  देव भी फोर्ब्स पत्रिका के हिस्सा बनने चाहिए।
        देश की आजादी के बाद शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव के लिए कई आयोग बैठे, शिक्षा विशेषज्ञों ने नई सलाहें दीं लेकिन मैकाले द्वारा अवतरित जंग लगी शिक्षा प्रणाली को बदलने में हम नाकाम ही रहे हैं। जबकि आजादी के तिरेसठ सालों में तय हो चुका है कि यह शिक्षा जीवन की हकीकतों से रूबरू नहीं कराती। तमाम उच्च डिग्रियां हासिल कर लेने के बावजूद विद्यार्थी स्वयं के बुध्दि-बल पर कुछ अनूठा करके नहीं दिखा पा रहे हैं। इस कागजी शिक्षा के दुष्परिणाम स्वरूप ही हम नए वैज्ञानिक, समाज शास्त्री, मनोवैज्ञानिक इतिहासज्ञ लेखक व पत्रकार देने में असफल ही रहे हैं।
        शैक्षिक अवसर की समानता से दूर ऐसे माहौल में उन बालकों को सबसे ज्यादा परेशानी से जूझना होता है, जो शिक्षित और मजबूत आर्थिक हैसियत वाले परिवारों से नहीं आते। समान शिक्षा का दावा करने वाले एक लोकतांत्रिक देश में यह एक गंभीर समस्या है, जिसके समाधान तलाशने की तत्काल जरूरत है। अन्यथा हमारे देश में नौ सौ से अधिक वैज्ञानिक संस्थानों और देश के सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञान व तकनीक के अनुसंधान का काम होता है, इसके बावजूद कोई भी संस्थान स्थानीय संसाधनों से ऊर्जा के सरल उपकरण बनाने का दावा करता दिखाई नहीं देता है। हां, तकनीक हस्तांतरण के लिए कुछ देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से करीब बीस हजार ऐसे समझौते जरूर किए हैं जो अनुसंधान के मौलिक व बहुउपयोगी प्रयासों को ठेंगा दिखाने वाले हैं। कल फोर्ब्स सूची में दर्ज अविष्कारकों का भी यही हश्र हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं ? इसलिए अब शिक्षा को संस्थागत ढांचे और किताबी ज्ञान से भी उबारने की जरूरत है, जिससे नवोन्मेषी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन व सम्मान मिल सके।      
        विद्रोही तेवर और धुन के पक्के लोगों को रचनात्मक व्यक्तित्व की विशेषता व विलक्षणता माना जाता है। ऐसे धुनी लोग ही स्थानीय स्तर पर फैले विज्ञान के उन बिखरे पड़े सूत्रों को पकड़ते है जो किसी आविष्कार के जनक बनते हैं। वैसे भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू है खोज करना, जांच करना और उपलब्ध जानकारियों के माध्यम से अज्ञात जानकारियों को प्रकाश में लाना। यही दृष्टिकोण खोजी विज्ञान और उसकी तार्किक विधि के  विज्ञान सम्मत पहलू उजागर करता है। नवाचार के ऐसे ही प्रयास फोर्ब्स सूची में दर्ज आविष्कारकों के है। लिहाजा इन्हें देश की प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं में परखने के बाद वैज्ञानिक उपलब्धि की मान्यता दे दी जाए तो ये खोजें अंतरराष्ट्रीय आविष्कारों के रूप में भी शायद मान्यता हासिल कर लें ? फोर्ब्स सूची ने तो इन उपलब्धियों को व्यापक फलक पर उजागर करने का काम भर किया है। साभार प्रमोद भार्गव

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